नई दिल्ली। चुनाव की दृष्टि से उत्तर प्रदेश की कुछ सीटें हमेशा चर्चा का विषय होती हैं। उन्हीं सीटों में एक सीट रायबरेली भी है। यह सीट कांग्रेस का गढ़ कही जाती है। 2019 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की यह इकलौती सीट है जहां कांग्रेस को जीत मिली थी। उस समय सोनिया गांधी यहां से जीतकर लोकसभा पहुंची थीं।
सोनिया गांधी के राज्यसभा में निर्वाचित होने के बाद यह सीट कांग्रेस के लिए नाक का सवाल बन गई है। इसी कारण कांग्रेस इस सीट पर कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। अनुमान के अनुसार ही कांग्रेस ने गांधी परिवार से राहुल गांधी को इस सीट से उतारा है। इस लेख के माध्यम से हम रायबरेली के इतिहास और कांग्रेस से इस सीट के जुड़ाव पर प्रकाश डालेंगे।
रायबरेली सीट का इतिहास
आजादी के बाद पहली बार 1952 में हुए चुनाव में रायबरेली से इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हांसिल की। उस समय रायबरेली और प्रतापगढ़ को मिलाकर एक ही सीट हुआ करती थी।
1957 में रायबरेली को प्रतापगढ़ से अलग कर दिया गया। दूसरी बार भी रायबरेली से फिरोज गांधी सांसद बने। बता दें फिरोज गांधी संसद में अधिकतर प्रधानमंत्री और अपने ससुर जवाहर लाल नेहरू की आलोचना के लिए जाने जाते थे।
1960 में फिरोज गांधी की मृत्यु के बाद 1962 में हुए उप-चुनाव में गांधी परिवार से किसी ने चुनाव नहीं लड़ा। इस चुनाव में कांग्रेस की तरफ से बैजनाथ कुरील को चुनाव में उतरे और जीत हांसिल की।
फिरोज गांधी के निधन के चार साल बाद 1964 में इंदिरा गांधी राज्यसभा पहुंचीं। इंदिरा गांधी 1967 तक राज्यसभा सांसद रहीं। 1966 जब इंदिरा देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं उस समय भी वह राज्यसभा सदस्य थीं। वर्ष 1967 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली सीट से पहली बार चुनावी राजनीति में कदम रखा और जीत हांसिल की।
इसके बाद 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने पुन: विजय प्राप्त की। इस चुनाव में इंदिरा को 1,83,309 वोट जबकि राज नारायण को 71,499 वोट मिले थे। हालांकि राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर सरकारी तंत्र के दुरुपयोग और चुनाव में हेराफेरी का आरोप लगाते हुए चुनाव नतीजों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने याचिका पर ही फैसला देते हुए इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया था। इंदिरा ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और इसी आधार पर अपना इस्तीफा देने से साफ मना कर दिया। इस घटना के कुछ दिन बाद ही देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। जानकार इस घटना को ही देश में आपातकाल की जड़ मानते हैं।
आपातकाल के बाद इंदिरा को मिला झटका
1971 के बाद अगला लोकसभा चुनाव 1977 में आपातकाल समाप्त होने के बाद हुआ। 1977 की जनता लहर में रायबरेली सीट से उतरीं इंदिरा गांधी को करारी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद इंदिरा कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट से उप-चुनाव लड़ी और जीतकर संसद पहुंची थीं।
इंदिरा ने जीता अपना गढ़
1980 में एक बार फिर इंदिरा गांधी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में रायबरेली सीट से मैदान में उतरी। इस बार उनके सामने थीं जनता पार्टी से राजमाता विजय राजे सिंधिया। एक बार फिर इस सीट से इंदिरा जीतने में सफल रहीं। दिलचस्प है कि इस चुनाव में इंदिरा रायबरेली के साथ ही आंध्र प्रदेश की मेंडक (अब तेलंगाना) सीट से भी जीतीं। चुनाव के बाद उन्होंने रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया और मेंडक की सांसद बनी रहीं।
इंदिरा ने अपने परिवार को थमाई विरासत
रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के इस्तीफे के बाद हुए उप-चुनाव में नेहरू-गांधी परिवार से संबंध रखने वाले अरुण नेहरू ने यहां से कांग्रेस के टिकट पर जीते। 1984 लोकसभा चुनाव में भी अरुण नेहरू ने इस सीट से जीत दर्ज की। 1989 में यहां से कांग्रेस की शीला कौल जीतीं। 1991 के लोकसभा में कांग्रेस प्रत्याशी शीला कौल को कड़ी टक्कर के बाद चुनाव जीतने में सफल रहीं।
बता दें कि 1989 और 1991 में रायबरेली सीट से जीतने वालीं शीला कौल भी नेहरू-गांधी परिवार से संबंध रखती थीं। शीला कौल के पति कमला नेहरू के भाई थी। रिश्ते में शीला कौल इंदिरा गांधी की मामी लगती थीं।
कांग्रेस को रायबरेली से मिली करारी हार
1996 में कांग्रेस ने रायबरेली सीट से शीला कौल के बेटे विक्रम कौल को अपना उम्मीदवार बनाया। लेकिन यह पहला चुनाव था जब कांग्रेस को रायबरेली सीट से करारी हार मिली। इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार विक्रम कौल की जमानत तक जब्त हो गई। कौल को कुल वोट का महज 5.29% वोट मिला था।
1996 के लोकसभा चुनाव के दौरान रायबरेली सीट पर एक दिलचस्प घटना देखने को मिली। दरअसल, इस चुनाव में भाजपा और जनता दल दोनों ने एक ही नाम वाले प्रत्याशी को टिकट दिया था। भाजपा ने अशोक सिंह पुत्र देवेंद्र नाथ सिंह को उतरा वहीं जनता दल ने अशोक सिंह पुत्र राम अकबाल सिंह को टिकट दिया।
इस चुनाव में मुख्य मुकाबला भी इन दोनों उम्मीदवारों के बीच हुआ। इस चुनाव में भाजपा ने विजय हासिल की। 1998 के आम चुनाव में भाजपा प्रत्याशी अशोक सिंह को फिर जीत मिली। इस चुनाव में कांग्रेस की ओर से शीला कौल की बेटी दीपा कौल उम्मीदवार थीं। 1996 में दीपा के भाई की जमानत जब्त हुई थी तो 1998 में दीपा की भी जमानत जब्त हो गई। भाई की ही तरह दीपा भी चौथे नंबर पर रहीं थीं।
कांग्रेस छोड़ भाजपा के टिकट पर उतरे अरुण नेहरू
1999 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने रायबरेली सीट पर वापसी की। इस बार कांग्रेस ने कैप्टन सतीश शर्मा को अपना प्रत्याशी बनाया था। हर बार की तरह इस बार भी यहां से गांधी-नेहरू परिवार से संबंध रखने वाले एक शख्स ने चुनाव लड़ा था।
ये दिगर बात है कि इस बार ये सदस्य कांग्रेस के टिकट से नहीं बल्कि भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में था। ये सदस्य थे अरुण नेहरू। बता दें अरुण नेहरू ने 1984 लोकसभा चुनाव में इस सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज कर चुके थे। हालांकि, राजीव गांधी से मदभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी।
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सोनिया गांधी ने रायबरेली को बनाया अपना गढ़
2004 में जब राहुल गांधी ने चुनावी राजनीति में कदम रखा तो सोनिया गांधी ने अमेठी सीट उनके लिए छोड़ दी और खुद रायबरेली से चुनाव लड़ने लगीं। 2009 के लोकसभा चुनाव में भी सोनिया गांधी रायबरेली सीट को बरकरार रखने में कामयाब रहीं। इसके बाद 2014 में भी इस सीट से सोनिया गांधी को प्रचंड जीत मिली। इस तरह से 2019 में भी सोनिया गांधी अपनी सीट बरकरार रखने में कामयाब हुईं।
क्या है रायबरेली की समीकरण?
राज्यसभा सांसद निर्वाचित हो चुकीं सोनिया गांधी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में नहीं उतरीं। नामांकन के आखिरी दिन कांग्रेस ने रायबरेली सीट से राहुल गांधी को अपना उम्मीदवार घोषित किया। वहीं भाजपा ने यहां से दिनेश प्रताप सिंह को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। जबकि बसपा ने ठाकुर प्रसाद यादव पर अपना विश्वास दिखाया है।