लोकसभा चुनाव को लेकर संपूर्ण देश में चुनावी माहौल है। राजनैतिक दल हो या आम जनता सभी चुनाव को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इन सब बातों के बीच यदि किसी चीज की कमी है तो वह मुद्दे की। अब तक के चुनाव में शायद यह पहला चुनाव होगा जो बिना किसी ठोस मुद्दे पर लड़ा जा रहा है।
हालांकि सभी राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र जारी किए हैं। लेकिन घोषणापत्र जारी करने और अहम मुद्दों पर चर्चा दोनों अलग अलग बात हैं। वैसे भी चुनाव प्रचार काफी हद तक घोषणापत्र से परे होता है।
पिछले काफी समय से देश में अधिकांश बहस अप्रासंगिक और अवांछित विषयों पर केंद्रित रही है। भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के पथ पर है ऐसे में देश में इससे बेहतर की उम्मीद थी। चूंकि जरूरी मुद्द नहीं उठ रहे हैं इसलिए भाषा भी प्रभावित हुई है।
इस वर्ष का चुनाव 10 वर्ष पहले हुए लोक सभा चुनावों से एकदम अलग है। उस समय भाजपा ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की कमजोरी का लाभ लेने के लिए ‘अच्छे दिन’ का वादा किया था। वह बदलाव के लिए हुआ सकारात्मक चुनाव प्रचार था और दशकों बाद एक दल को बहुमत मिला था। 2019 के आम चुनावों में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा अहम था क्योंकि पुलवामा और बालाकोट के मामले जनता की स्मृति में एकदम ताजे थे। आज वैसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है।
किन्तु वर्तमान में चुनाव प्रचार अभियान इतिहास के इर्दगिर्द घूम रहा है। कई बार तो मध्यकालीन इतिहास की बातें होने लगती हैं कि किसने कब क्या खाया, आरक्षण रखने या बढ़ाने की बातें हो रही हैं जो लोगों को एक दूसरे के खिलाफ करती हैं।
इतना ही नहीं संपत्ति और संसाधनों के पुनर्वितरण की बातें हो रही हैं। इनसे आर्थिक वृद्धि की गति बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिलेगी। न ही स्कूली शिक्षा के नतीजों में कोई सुधार होने वाला है। ताजा उदाहरण विरासत कर का मुद्दा है। इस मुद्दे पर कुछ दिनों तक बिना वजह चर्चा में रहा और फिर नदारद हो गया। हालांकि यह बात सभी जानते हैं कि भारत लोकतांत्रिक देश में ऐसे कर लगाना बहुत मुश्किल है।
जानकारों का कहना है कि राजनीतिक दलों द्वारा अप्रासंगिक मुद्दों पर बात करने का प्रमुख कारण चुनावों की प्रक्रिया का लंबा होना भी हो सकता है। अगर दो या तीन चरणों में चुनाव प्रक्रिया पूरी हो जाती तो शायद वे अहम मुद्दों पर केंद्रित रहते। राजनीतिक बहस में सुधार की प्राथमिक जिम्मेदारी भाजपा और कांग्रेस दोनों की है।
भारतीय जनता पार्टी देश को विकसित बनाना चाहती है तो उसके लिए यह अवसर था कि वह अपनी उपलब्धियां गिनाए और भविष्य की योजनाओं पर बात करे। कांग्रेस तथा विपक्षी दलों के लिए यह मौका था कि वे उन क्षेत्रों को चिन्हित करें जिनमें सरकार अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी। वे मतदाताओं के समक्ष बेहतर विकल्प भी प्रस्तुत कर सकती थी।
देश के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। भारतीय मतदाताओं को मोटे तौर पर व्यक्तिगत हमले सुनने को मिल रहे हैं और ऐसे मुद्दों पर बात हो रही है जो देश को आपसी फूट के मकडजाल में फंसा रही है।
वर्तमान में भारत को तेज आर्थिक विकास की आवश्यकता है। इसके लिए राजनीतिक पूंजी और टिकाऊ वृद्धि सुनिश्चित करने पर केंद्रित रहना चाहिए। देश की बढ़ती श्रम शक्ति के लिए तथा कृषि में लगी आबादी को अन्य उत्पादक रोजगार की आवश्यकता है। तभी उत्पादकता और वृद्धि हासिल किए जा सकेंगे। भारत कैसे विकास के पथ पर आगे बढ़ेगा यह बात किसी भी राजनीतिक बहस के केंद्र में होनी चाहिए थी। किन्तु इस वर्ष के चुनाव में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है।
जब संपूर्ण विश्व भारत की ओर एक तीसरी और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में देख रहा है। लोकसभा चुनाव के दौरान जहां सभी राजनीतिक दलों का मुख्य मुद्दा देश का विकास होना चाहिए वहां देश के राजनीतिक दल बिना किसी ठोस मुद्दे के चुनाव मैदान में घूम रहे हैं। जो देश और देशवासियों के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहे है।
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