पहाड़ की नारी

पहाड़ की नारी का संघर्ष

स्पेशल

यूं तो पहाड़ की नारियों का संघर्ष उनके जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है और जीवन भर चलता ही रहता है। आज भी जब किसी के घर में कन्या का जन्म होता है तो उसे एक बड़ा बोझ ही समझा जाता है और उसके जन्म की कोई खास खुशी भी नहीं मनाई जाती है। लेकिन अब धीरे-धीरे समय परिवर्तन के साथ लोगों की सोच में भी बदलाव आ रहा है। हालांकि समाज में आज भी बेटियों को बेटों के बराबर नहीं समझा जाता है और इसी सोच के चलते पहाड़ की बेटियां आज भी बेटों से पीछे ही हैं।

पहाड़ों में आज भी बेटी को पढ़ाने–लिखाने से ज्यादा उसके जल्द से जल्द विवाह की चिंता माता-पिता को रहती है। हालांकि कठोर कानूनों के चलते बाल विवाह पर तो काफी हद तक रोक लग चुकी है पर इससे बेटियों के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं आया है।

जहां विवाह से पूर्व बेटियों को घर में काफी प्रतिबंधों के साथ रखा जाता है तो वही विवाह के उपरांत भी उन पर संस्कारों और सम्मान के नाम पर और भी कड़े प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं। कहीं-कहीं तो लोग महिलाओं के साथ अछूतों और जानवरों जैसा व्यवहार भी करते हैं।

जैसे पहाड़ में कहीं-कहीं महिलाओं को पुरुषों से पहले खाने का अधिकार नहीं है। जब तक परिवार के पुरुष सदस्य खाना नहीं खा लेते तब तक महिलाएं खाना नहीं खा सकती और अगर महिलाओं ने पुरुषों से पहले खाना खा लिया तो उसे अभद्रता माना जाता है।

पहाड़ों में महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान भी घर के बाहर गौशाला (गोठ) में जानवरों के साथ रखा जाता है और उसे महिला को घर में प्रवेश करने पर पूर्ण पाबंदी रहती है, और मासिक धर्म चक्र पूरा होने के बाद महिला को पूर्ण शुद्धि कर गोमूत्र से स्नान करने के बाद ही घर में प्रवेश करने दिया जाता है।

कई जगहों पर महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश पर भी पूर्णता प्रतिबंधित है और महिलाएं किसी भी सूरत में मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकती हैं।

अगर आर्थिकी की बात की जाए तो पहाड़ों की 90% आर्थिकी की महिलाओं पर ही निर्भर है, यहां घर से लेकर खेत खलिहानों तक का सारा काम महिलाएं ही करती हैं। मैं बात कर रहा हूं पहाड़ की उसे सशक्त महिला की जो घर का चूल्हा भी जलती है और खेत खलिहानों का काम भी संभालती है।

पहाड़ों में पुरातन काल से ही जानवर पाले जाते हैं और जानवरों के चारे से लेकर उनकी देखभाल का पूरा जिम्मा घर की महिलाओं का ही होता है। घरों में खाना बनाना जंगल से चार और ईंधन लाना या फिर खेतों में बीज बोने से लेकर फसल काटने तक का सारा काम महिलाएं ही करती हैं। कहीं-कहीं पुरुष भी महिलाओं के कामों में कुछ हाथ जरूर बटाते हैं पर इन कामों की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं की ही होती है, और इन सब के बीच सबसे बड़ी जिम्मेदारी बच्चों और परिवार की देखभाल करना भी है।

पहाड़ों की भौगोलिक स्थिति की अगर बात की जाए तो आज भी कहीं-कहीं मोटर मार्ग गांव से काफी दूर हैं जहां तक ग्रामीणों को पैदल ही यात्रा करनी पड़ती है। ऐसे में गांव से मोटर मार्ग तक सामान पहुंचाना एक कठिन समस्या है। जिसका हाल भी महिलाएं ही हैं। ऐसे में महिलाएं ही सारा सामान अपने सर पर रखकर मोटर मार्ग तक पहुंचती हैं।

पहाड़ की महिलाओं के लिए गर्भधारण करना भी एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि प्रसव के समय गांव में रोड ना होने के कारण उन्हें डोली या चारपाई में रखकर सड़क मार्ग तक पहुंचाया जाता है, और तब जाकर वह अस्पताल पहुंच पाती हैं।

कभी-कभी दुर्भाग्यवश समय पर उपचार न मिल पाने की वजह से उनकी मृत्यु तक हो जाती है। अपने पूरे जीवन काल में संघर्षों से जूझती यह पहाड़ की नारी हर तकलीफ और परेशानी में चट्टान की तरह अधिक और शांत रहती है।

पहाड़ की वह नारी जो इन सब कठिनाइयों के बाद भी अपना संघर्ष नहीं छोड़ती और अपने परिवार की सुख समृद्धि के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देती है। पहाड़ की उस योद्धा को मेरी कलम शत-शत नमन करती है।

संजय प्रसाद

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