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आखिर क्यों की जाती है परिक्रमा

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हिंदू धर्म में पूजा-अर्चना के साथ-साथ परिक्रमा का भी बहुत महत्व है। शास्त्रानुसार परिक्रमा करने से मनुष्य को अक्षय पुण्य प्राप्त होता है और पाप नष्ट होते हैं।

इस विषय पर ज्योतिषाचार्य डॉ. पियूष अवतार शर्मा ने बताया कि हमारे वेदों और शास्त्रों के अनुसार मंदिर या किसी भी धर्मिक स्थल के आस पास सकारात्मक ऊर्जा होती है इस बात को वैज्ञानिक भी माते हैं कि मंदिर में दिव्य शक्ति होने से हमें भी सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। जिससे मानसिक शांति और शारीरिक ऊर्जा का विकास होता है।

मंदिर की परिक्रमा अपने दक्षिण भाग अर्थात दाएं हाथ से शुरू करनी चाहिए। दक्षिण की तरफ परिक्रमा करने से इसे ‘प्रदक्षिणा’ भी कहा जाता है। मंदिर में दैवीय शक्तियों का प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर होता है। बाईं तरफ से परिक्रमा करने पर मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा का हमारे अंदर उपस्थित ऊर्जा से टकराव होने पर हमारा तेज कम हो जाता है।

शास्त्रों के अनुसार परिक्रमा करते समय बीच-बीच में रुकना नहीं चाहिए और न ही किसी से बात करनी चाहिए। परिक्रमा हमेशा नंगे पाव ही करनी चाहिए। परिक्रमा लगाते समय देवी-देवता की पीठ की तरफ पहुंचने पर भगवान को प्रणाम करना चाहिए। इसके साथ ही ध्यान रखना चाहिए कि परिक्रमा अधूरी करने से पूर्ण फल नहीं मिलता। 

डॉ. पियूष अवतार शर्मा ने बताया कि परिक्रमा के लिए एक मंत्र भी है जिसका उच्चारण परिक्रमा के दौरान करना चाहिए-

यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च।

तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।।

 अथार्त: मेरे द्वारा जाने-अनजाने और पिछले जन्मों में किए गए सारे पाप इस परिक्रमा से समाप्त हो जाएं। परमात्मा मुझे अच्छे कार्य करने की बुद्धि प्रदान करें।

 परिक्रमा के छिपा इतिहास

यह परिक्रमा केवल पारंपरिक आधार पर ही नहीं की जाती बल्कि इसे करने के पीछे अन्य कई और भी कारण हैं। इन कारणों को जानने से पहले जरूरी है परिक्रमा करने के लाभ जानना लेकिन इससे भी अधिक आवश्यक है परिक्रमा करने के पीछे का इतिहास जानना। कुछ धार्मिक पुस्तकों में एक कथा का वर्णन है जो हमें परिक्रमा करने का कारण भी बताती है।

एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय तथा गणेश को संसार का एक चक्कर लगाकर उनके पास वापस लौटने का आदेश दिया गया। साथ ही कहा जो भी इस परिक्रमा को पहले पूर्ण करेगा वही इस दौड़ का विजेयी होगा तथा उनकी नजर में वह सर्वश्रेष्ठ होगा।

यह सुनकर कार्तिकेय जी अपनी सवारी मोर पर सवार हुए तथा संसार का चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े। उन्हें यह भ्रमण समाप्त करने में युग लग गए वहीं दूसरी ओर गणेश जी ने अपने दोनों हाथ जोड़े तथा माता पार्वती और पिता शंकर जी के चक्कर लगाना शुरू कर दिया।

जब कार्तिकेय जी संसार का चक्कर लगाकर वापस लौटे तो गणेश जी को अपने सामने देखकर हैरान हो गए। बाद में गणेश जी से जब पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उनका संसार तो स्वयं उनकी माता और पिता हैं, इसलिए उन्हें संसार का चक्कर लगाने की आवश्यकता नहीं है।

इस पौराणिक कथा में भगवान गणेश की सूझ-बूझ ना केवल मनुष्य को परिक्रमा करने का महत्व समझाती है, बल्कि यह भी बताती है कि माता-पिता का स्थान ईश्वर के ही समान हैं उनकी परिक्रमा करने से ही हमें संसार का समस्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

इनकी भी होती है परिक्रमा

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार केवल भगवान ही नहीं बल्कि और भी कई वस्तुओं की परिक्रमा की जाती है। ईश्वर के अलावा अग्नि, पेड़ तथा पौधों की परिक्रमा भी की जाती है। सबसे पवित्र माने जाने वाले तुलसी के पौधे की परिक्रमा करना हिन्दू धर्म में काफी प्रसिद्ध है।

मूर्ति, पेड़, पौधे की परिक्रमा

इसके अलावा पीपल के पेड़ और अग्नि की परिक्रमा भी की जाती है। अग्नि की परिक्रमा हिन्दू विवाह की एक अहम रीति है जिसमें भावी पति तथा पत्नी द्वारा विवाह संस्कार के दौरान एक-दूसरे से पावन रिश्ता जोड़ने के लिए हवन कुंड में जलती हुई अग्नि के सात फेरे लिए जाते हैं। फेरों में पति तथा पत्नी द्वारा जीवन भर साथ निभाने का वचन भी लिए जाता है।

ऐसे करें परिक्रमा

किसी विशेष मंदिर में प्रभु की प्रतिमा की पूजा सामग्री के साथ आराधना करने के बाद भक्त वहां से बाहर आ जाता है। इसके बाद मंदिर के आसपास गोलाकार रूप में बनाई जगह का चक्कर लगाया जाता है।

ध्यान रहे कि इस रास्ते में सामने की ओर देखते हुए घड़ी की सुई की दिशा में ही चलना होता है। शास्त्रों के अनुसार यह परिक्रमा ध्यानपूर्वक भक्ति भाव से की जाती है।

परिक्रमा करने में जल्दी ना करें

यह भी मान्यता है कि परिक्रमा हमेशा धीरे-धीरे ही करनी चाहिए और हमें किसी भी प्रकार की जल्दी नहीं करनी चाहिए। आराम से चलते हुए हमारा प्रभु पर ध्यान बना रहता है और इसी प्रकार हमें मन की शांति प्राप्त होती है। प्रदक्षिणा को घड़ी की सुई की दिशा में करने का एक कारण यह भी है कि इस प्रकार से चलते हुए भगवान हमेशा सीधे हाथ की ओर रहते हैं जो हमें जीवन में सही दिशा में रहने की सीख देता है।

परिक्रमा करने के लाभ

भगवान से विभिन्न फल पाने के लिए या फिर अपने मन को शांति देने के लिए हम उनसे प्रार्थना करते हैं। इसी तरह से भगवान की परिक्रमा करते हुए भी हमें अनेक लाभ मिलते हैं। कहते हैं मंदिर या पूजा स्थल पर प्रार्थना करने के बाद उस जगह का वातावरण काफी सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है।

परिक्रमा या प्रदक्षिणा

परिक्रमा को संस्कृत में प्रदक्षिणा भी कहा जाता है, भगवान की उपासना करने के लिए की जाती है। अकसर लोग मंदिरों, मस्जिदों तथा गुरुद्वारों में एक विशेष स्थल जहां भगवान की मूर्ति या फिर कोई पूज्य वस्तु रखी जाती है, उस स्थान के आस-पास चक्राकार दिशा में परिक्रमा करते हैं। सनातन धर्म के महत्वपूर्ण वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद से हमें प्रदक्षिणा के बारे में जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद में प्रदक्षिणा

ऋग्वेद के अनुसार प्रदक्षिणा शब्द को दो भागों (प्रा + दक्षिणा) में विभाजित किया गया है। इस शब्द में मौजूद प्रा से तात्पर्य है आगे बढ़ना और दक्षिणा मतलब चार दिशाओं में से एक दक्षिण की दिशा। यानी कि ऋग्वेद के अनुसार परिक्रमा का अर्थ है दक्षिण दिशा की ओर बढ़ते हुए देवी-देवता की उपासना करना।

इस परिक्रमा के दौरान प्रभु हमारे दाईं ओर गर्भ गृह में विराजमान होते हैं। लेकिन प्रदक्षिणा को दक्षिण दिशा में ही करने का नियम क्यों बनाया गया है?

दक्षिण दिशा जरूरी

मान्यता है कि परिक्रमा हमेशा घड़ी की सुई की दिशा में ही की जाती है तभी हम दक्षिण दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं। तो फिर क्या कारण है जो हमें घड़ी की सुई की दिशा में ही चलना चाहिए। हिन्दू धर्म की मान्यताओं के आधार पर ईश्वर हमेशा मध्य में उपस्थित होते हैं। यह स्थान प्रभु के केंद्रित रहने का अनुभव प्रदान करता है।

मंदिर में क्यों होता है भगवान का मध्य स्थान

मंदिर में बीच का स्थान हमेशा एक ही रहता है और यदि हम इस स्थान से गोलाकार दिशा में परिक्रमा करें तो हमारे और भगवान के बीच का अंतर एक ही रहता है। यह फासला ना ही बढ़ता है और ना ही घटता है। इससे मनुष्य को ईश्वर से दूर होने का भी आभास नहीं होता। इसके साथ ही यह भावना भी बनी रहती है कि प्रभु उसके आस-पास ही हैं।

परिक्रमा का वैज्ञानिक लाभ

मंदिर में सकारात्मक ऊर्जा सबसे अधिक होती है और जो भी व्यक्ति उस स्थान पर मौजूद होता है उसे इस ऊर्जा की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि गणेश जी की तरह ही मंदिर में भक्त भी भगवान की मूर्ति की परिक्रमा करते हैं और मंदिर में उपस्थित सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करते हैं।

यह ऊर्जा हमें जीवन में आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान करती है। इस तरह परिक्रमा ना केवल आध्यात्मिक वल्कि मनुष्य के शरीर को भी वैज्ञानिक रूप से लाभ देती है।

शास्त्रों के अनुसार सभी देवी और देवताओं की परिक्रमा की संख्या अलग-अलग है-

  • शास्त्रों के अनुसार हनुमान जी की तीन परिक्रमा करनी चाहिए।
  • शिवलिंग का जल जिस ओर से निकलता हो उसे कभी लांघा नहीं जाता, वहीं से वापिस हो जाना चाहिए, इसलिए शिवलिंग की हमेशा आधी परिक्रमा की जाती है। 
  • दुर्गा माता की एक या तीन परिक्रमा की जाती है। 
  •  कृष्ण जी की चार परिक्रमा करने से पुण्य प्राप्त होता है।
  •  विष्णु जी की चार परिक्रमा करना शुभ माना जाता है।
  •  विष्णु जी के अवतार राम जी की चार परिक्रमा होती हैं।
  •  गणेश जी की तीन परिक्रमा करने से कष्ट दूर हो जाते हैं और कार्य सिद्ध होते हैं।
  •  भैरव जी की तीन परिक्रमा की जाती हैं।
  •  शनि भगवान की सात परिक्रमा करनी चाहिए।
  •  सूर्य भगवान की सात परिक्रमा करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
  •  पीपल के वृक्ष की सात बार परिक्रमा करने से शनि दोष व अन्य ग्रहों के दोष नष्ट होते हैं।
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